डॉ रवि रंजन कुमार
"बलात्कार' स्त्री का कलंक नही वरन शराफत का सबूत है।" इन्दु वीरेन्द्रा के इस वाक्य से उनके लेखन के मर्म को समझा जा सकता है। पश्चिम के एक विद्वान ने अपने समकालीनों के समक्ष यह महत्वपूर्ण प्रश्न रखा कि आप वास्तव में लिखना चाहते है या लेखक बनना चाहते है। वास्तविक लेखन और लेखक कहे जाने के लिए किए गए लेखन में बहुत फर्क होता है। इन्दु वीरेन्द्रा की नवीनतम पुस्तक "चक्रव्यूह" वास्तविक लेखन का उदाहरण प्रस्तुत करती है। पुस्तक में बलात्कार को केंद्र में रखकर स्त्री की पीड़ा एवं पुरुषवर्चस्ववादी व्यवस्था पर विचार किया गया है। यहाँ लेखिका इस सवाल से जूझते दिखाई देती हैं कि इस वर्चस्ववादी व्यवस्था का दंश स्त्रियों को ही क्यों झेलना पड़ता है?
स्त्री यदि स्वयं को साबित करना चाहती है तो पुरुषवर्चस्ववाद उसे दंडित करने में क्यों जुट जाता है? और इसके लिए जिस ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया जाता है वह बलात्कार है। इस कुत्सित अपराध के पीछे पुरुष की मंशा वास्तव में स्त्रियों के अस्तित्व को कुचलना है। जिसके पीछे सारा तंत्र किसी न किसी रूप में पुरुषों का सहयोगी ही सिद्ध होता है।
पुस्तक में सात अध्यायों के माध्यम से इन्हीं तथ्यों की पड़ताल की गई है। समाज, कानून व्यवस्था किस प्रकार बलत्कृत स्त्री को प्रताड़ित करती है और यह कितना भयावह होता है इस पुस्तक द्वारा समझा एवं महसूस किया जा सकता है। विसंगति यह है कि विभिन्न दंड संहिता होने के बाद भी आरोपी बच निकलता है और स्त्री इस दंश को झेलने पर विवश कर दी जाती है। "स्त्री पर लादे गए दैहिक पवित्रता के मापदंड कि जिस स्त्री की अस्मिता चाहे ज़ोर-जबरदस्ती से लूट ली गई हो, वह ग्रहण करने योग्य नही, गलती उसी की है। समाज के ये खोखले आदर्श उस निर्दोष को अपमान के कड़वे घूट पीने के लिए मजबूर कर देते हैं।
" समाज के ऐसे आदर्श स्त्री प्रताड़ना को बढ़ावा देते हैं। लेखिका के मन मे उसका गहरा असंतोष इन वाक्यों में दिखाई देता है। यहाँ सिर्फ बातें ही नही बताई गई उसकी गहरी पड़ताल भी की गई है। तभी वह लिखती हैं कि "आमतौर पर भारतीय सामाजिक परिवेश में लड़कियों पर अनेक प्रतिबंध रखे जाते हैं। लड़कों को संयम सीखने से परहेज किया जाता है। यही कारण है कि भारतीय समाज का पुरुष वर्ग अधिकतर अहंकारी मनमौजी और ज़िद्दी व्यक्ति के रूप में उभरता है। मर्यादाओं को तोड़कर अहंकार की संतुष्टि उसके व्यक्तित्व का अहम भाग है। बलात्कार भी इसी का हिस्सा है।"
यहां हर पहलू पर विचार करते हुए समस्याओं को चिह्नित करने का प्रयास किया गया है।बलात्कारी, बलत्कृत के साथ साथ उसके परिवेश, मानसिकता, समाज तथा कानून की पड़ताल यहाँ जिन बारीकियों से की गई है वह व्यवस्था विन्यास की विसंगतियों को उजागर करता है। पुरुषवर्चस्ववादी अहंकार इस तरीके से व्याप्त है जो भले ही महसूस न हो लेकिन फन फैलाने में उसका कोई सानी नही है। विभिन्न जाति, समाज, समुदाय में यह वीभत्स घटना सदियों से दोहराई जाती रही है जिसके मूल में वर्चस्ववादी मानसिकता कायम है। पुरुष द्वारा स्त्रियों को इस जघन्य तरीके से अपमानित किए जाने एवं पुनः उसे प्रताड़ित किए जाने जैसी विसंगत स्थितियों पर लेखिका का आक्रोश यहाँ दृष्टिगत होता है।
बलात्कार की इस समस्या पर विचार करते हुए लेखिका इसकी तह तक पहुँचते हुए इसे स्त्री हिंसा के आदिम हथियार के रूप में देखती हैं। अहिल्या जैसी पौराणिक पात्र का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया है कि इंद्र की कुत्सित वासना का शिकार होकर अहिल्या को जिस अभिशप्त जीवन का सामना करना पड़ा था उसमें इन्द्र का बचे रह जाना, किसी भर्त्सना को न झेलना तब से अब तक के पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता की स्थिरता को ही दर्शाने वाला सिद्ध होता है। वर्तमान समय मे बाज़ार एवं उपभोक्तावादी संस्कृति ने स्त्री को वस्तु के रूप में परिवर्तित कर दिया है जहाँ स्त्री स्वतंत्रता का भ्रम तो दिखता है पर वह है नहीं। इस व्यवस्था में भी स्त्री को इसी हथियार से जख़्मी करने का सफल प्रयास होता है। "उपभोक्तावाद के उफनते ज्वार ने फ़िल्म विज्ञापन की दुनिया को इतना बिकाऊ बना दिया है जिसमे स्त्री चीज़ बनकर रह गई है।
" स्त्री को वस्तु बनाने का श्रेय केवल पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता को दिया जा सकता है। यही कारण है कि संसार मे कहीं भी स्त्री सुरक्षित महसूस नही करती। पैदा होने के बाद से मृत्यु तक वह अपनी अस्मत को बचाए रखने के प्रयास में एक डर के साथ जीती रहती है। उत्पीड़न का अंतहीन साम्राज्य उसके चहुं ओर मंडराता रहता है।
"अमेरिका जैसे देश मे जहाँ ऐसा माना और जताया जाता है कि स्त्रियों को पर्याप्त स्वतंत्रता मिली है, वहां बाँबिट प्रकरण जैसे मामले के घट जाने से सिद्ध होता है कि वहाँ भी नारी उत्पीड़न की स्थिति गंभीर है।" यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल से अब तक पुरुषवादी मानसिकता के कारण पुरुष से भयभीत रहने की मानसिकता स्त्रियों में ज्यों की त्यों बनी हुई है।
इस पुस्तक में इन्दु जी रमा बाई, सुमन रानी, शकीला, गीतू , वसु ,अरु, रीता कोहली, कम्मो आदि के साथ घटी घटनाओं का विवरण देकर वर्तमान समय मे स्त्री की विसंगत स्थिति से हमे अवगत कराती हैं। इनके साथ घटी घटनाऐं केवल सोचने को मजबूर नही करती अपितु उस व्यवस्था के प्रति जुगुप्सा उत्पन्न कराती है जिसमें स्त्री इस घृणित मानसिकता का शिकार होकर आजीवन दंश झेलने को अभिशप्त कर दी जाती है। यहाँ लेखिका द्वारा कालखंड, स्थान, घटना, संख्या आदि की सूचना नही दिया जाना अत्यधिक खटकता है। यह पुस्तक के हिसाब से आवश्यक तथ्य था जिसका अभाव घटना को मात्र कथा के रुप मे बयान किया गया विवरण बना देता है। बहरहाल इतना ज़रूर है कि कथ्य के मूल उत्स तक पहुँचने में कोई समस्या नही आती है।
बलात्कार की समस्या आज विभिन्न रूपों में प्रकट होकर इतनी भयावह हो गई है कि एक सुरक्षित समाज की कल्पना कभी यथार्थ के धरातल पर फलीभूत होती दिखाई नही देती। सुरसा के मुख के समान इसका विस्तार बढ़ता जा रहा है। "सुरक्षित जीवन बिताना भारत ही नही संसार की प्रत्येक स्त्री का अधिकार है। यह मानवाधिकार की श्रेणी में आता है परंतु दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब देश मे मानवाधिकारों के साथ ही खुले में बलात्कार हो रहा है तब स्त्री की बिसात ही क्या है?" व्यवस्था के प्रति लेखिका का असंतोष यहाँ साफ़ देखा जा सकता है। जिस समाज मे स्त्री पूजनीय मानी जाती रही हो वहाँ स्त्री तब कुछ नही रह जाती जब पुरुष वर्चस्व उसे हर प्रकार से अपने अधीन रखना चाहता है। तमाम व्यक्तिगत, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक व क्षेत्रगत प्रगति के बाद जब इस प्रकार की घटनाएँ सामने आती है तो यह प्रगति संदेहास्पद प्रतीत होने लगती है। यहाँ पुरुष समाज स्त्रियों के मामले में सदियों पिछड़ी सोच को फलीभूत होते देखना चाहता है।
"भारतीय समाज मे जहाँ यूँ तो हर व्यक्ति स्वयं को प्रगतिशील बताने, जताने और मनवाने पर तुला रहता है, वहीं स्त्रियों के चरित्र के मामले में युगों पीछे चला जाता है।" दरअसल यौन शुचिता का मामला स्त्री के संदर्भ में इस प्रकार से हावी है कि उसकी सदगति और दुर्गति दोनो को इससे जोड़कर देखा जाने लगता है। इसके पीछे संतान प्राप्ति के लिए रक्त की शुद्धता का तर्क दिया जाता है जिसके अनुरूप स्त्री को एक पुरुष का होकर रहना आवश्यक है। अगर वह ऐसा नही करती है तो पुंश्चली है। लेकिन पुरुष द्वारा जब स्त्रियों को इस जघन्यता से कलंकित किया जाता है तो स्वंय उसके द्वारा बनाए मापदंड को ही धवस्त कर दिया जाता है। "निर्दोष, जोर-जबरदस्ती की शिकार स्त्री के प्रति समाज का दोषी नज़रिया उसे प्रताड़ना के कटघड़े में खड़ा करने के लिए विशेष रूप से ज़िम्मेदार है।"
बलात्कार के लिए दंड विधान पर विचार करते हुए इन्दु जी का मानना है कि भीषण दंड विधान की अपेक्षा इसके कारणों को ओट लगाकर उसके निराकरण के उपाय किए जाने की आवश्यक्ता है। केवल दंडित कर इस अपराध से मुक्ति संभव नही है। घटनाओं को देखते हुए उनका यह मंतव्य सत्य प्रतीत होता है क्योंकि कठिन दंड के बावजूद इस कुत्सित अपराध को अंजाम दिया जा रहा है जिसमे अब फैंटेसी का प्रयोग भी किया जाने लगा है। दंड जिस डर को पैदा करता है उसमें कानून सफल होता नही दिख रहा है। यही कारण है कि लेखिका का चिंतन गहराई में उतरकर इसके पड़ताल की बात करता है।
हमुराबी ने अपने विधि संहिता में बलात्कार के लिए जिस दंड विधान का उल्लेख किया है वैसा दंड विधान भी वर्तमान समय की बलात्कार की भयावहता को देखते हुए उपयोगी प्रतीत नही हो रहा है। यहां ऐसे -ऐसे मिथकीय नहुस मौजूद हैं जो वर्चस्व के बल पर स्त्री पर अपना अधिकार समझते हुए उसे बलत्कृत करने को आतुर हो उठते है। अतः जरूरत उस मानसिकता को बदलने की है जो इस कार्य को अंजाम देने के पीछे गतिशील है। इतना अवश्य है कि स्त्रियों ने, चाहे वह जिस वर्ग समुदाय से हो, इस पुरुषवर्चस्ववादी मानसिकता के खिलाफ पुरज़ोर आवाज़ उठाना शुरू कर दी है जो आंदोलन का रूप लेकर व्यवस्था के बदलाव में सक्षम दिखाई देता है।
बलात्कार से संबंधित प्रश्नों से जूझते टकराते हिंदी के कई साहित्यकार दिखाई देते है जिनमे अमरकांत, विष्णु प्रभाकर, रमणिका गुप्ता, तस्लीमा नसरीन इत्यादि नाम प्रमुखता से शामिल हैं। बलात्कार संबंधी इनका लेखन मूल रूप से परिस्थितियों और प्रश्नों से टकराव है। 'चक्रव्यूह' पुस्तक में इन्दु जी ने भी समस्याओं की पड़ताल करते हुए उससे जुड़े तंत्र पर गहराई से चिंतन किया है। वे इस घटना के लिए प्रमुख रूप से जिम्मेदार पुरुष वर्चस्व को मानती है जिसके मूल में विभिन्न विसंगतियां सक्रिय है।
इस प्रकरण में यह भी देखा जाता है कि स्त्री अगर न्याय मांगने जाती है तो उल्टे उसे ही प्रताड़ित होना पड़ता है। पुलिस द्वारा उसे दंडित तक किया जाता है। इन्दु जी ने पुलिस की बर्बरता को लेकर एक पूरा अध्याय पुस्तक में प्रस्तुत किया है। वे यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में पुलिस की ज्यादतियों का उल्लेख करके उनके रक्षक के भक्षक होने की बात को पुष्ट कर देती हैं। लेकिन इस अध्याय में और मुद्दे जो पुलिस से जुड़े हैं जिनसे पुलिस का सीधा संबंध होता है। लेखिका द्वारा उसका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। न ही इस सम्बंध में वह कोई मत प्रकट करती हैं। जिस मनोयोग से उन्होंने इस पुस्तक को लिखा है तथा तथ्यों से हमे अवगत कराया है वह मनोयोग पुलिस कर्मियों के विवरण में उभरकर सामने नही आया है। यह जरूर है कि जिन तथ्यों को यहाँ उन्होंने संकेतो में स्पष्ट करने का प्रयास किया है उसमें वो सफल रही हैं।
पीड़िता का न्याय की मांग करना उसका अधिकार है लेकिन कानून से जुड़ी विसंगतियों के कारण उसे न्याय के लिए भटकना पड़ता है। लेखिका इस स्थिति पर लिखती है-"पीड़ित स्त्री का न्याय के लिए भटकना, न्याय पाने की उम्मीद में प्रताड़ित और पीड़ित होना पुरुष अहम को संतुष्ट और सुखी करता है।" पुरुष अहम की इस तृप्ति को पुष्ट करने में न्यायिक व्यवस्था और सामाजिक प्रणालियों का बड़ा योगदान रहता है। ऐसा पुरुष वर्चस्ववादी व्यवस्था के कारण ही होता है। यह मानसिकता सदा स्त्री को गौण मानकर चलने की पक्षधर होती है।
"पुरुष द्वारा किया गया बलात्कार का कुकृत्य तमाम विकास के बावजूद स्त्री के अस्तित्व को बौना साबित कर देता है।" अकारण नही है कि स्त्री को दबा कर रखने के लिए पुरुष द्वारा इस कुकृत्य का सहारा लिया जाता है। वर्तमान समय मे बलात्कार संबंधी दंड विधान का उपयोग कर स्त्रियों ने पुरुषों का शिकार करना शुरू किया है जिस पर विचार करते हुए इन्दु जी मानती है कि हर मामले में बस पुरुष ही दोषी हो ऐसा नही है। कुछ मामलों में पुरुष को इसके लिए प्रताड़ित करने का कार्य स्त्रियों द्वारा भी किया जाता है जिसमे दंड विधान का दुरुपयोग धड़ले से होता है। यह जरूर है कि स्त्री के साथ चाहे जिस प्रकार भी इस कुकृत्य को अंजाम दिया गया हो वह जघन्य है। फिर चाहे वह पति द्वारा पत्नी से जबरन बनाए गए संबंध ही क्यों न हों। इस संदर्भ में सामाजिक संवेदनाओं का गौण होना चिंतनीय प्रतीत होने लगता है।
"निर्दोष स्त्री पीड़ा की चरमसीमा पर पहुँचकर यदि आत्महत्या भी कर ले तब भी समाज की संवेदनाएँ नही जगती हैं। अपितु वह तो मौत के बाद भी कलंक के काले कफन में लपेटी जाती है।" तात्पर्य यह कि शिकार भी स्त्री एवं कलंकित भी स्त्री ही होती है। जबकि कलंकित अपराधी के साथ बहिष्कार भी अपराधी का ही किया जाना चाहिए।
'चक्रव्यूह' के पहले अध्याय में लेखिका का क्षोभ जिस रूप में उभरता है उससे पूर्ण सहमत नही हुआ जा सकता है। स्त्री पुरुषों की नकल कर रही है, या आर्थिक सुरक्षा से हुकुम चला रही है अथवा मातृत्व विसर्जित कर रही है तो उसके पीछे भी समाज मे मौजुद वर्चस्ववादी व्यवस्था है। पुरुष को उसका रुपयों का टकसाल बनना मंजूर है। घर से बाहर जाकर रुपए कमाकर लाना मंज़ूर है। लेकिन देह संबंधी छोटी से भी छोटी घटना उसे मंजूर नहीं इसके लिए दोषी वह स्त्री को ही ठहराता है। इसका दूसरा पहलु यह भी है कि आर्थिक रूप से मजबूत होकर वह कुँवारी माँ या सिंगल पैरेंट बनने की हिम्मत जुटा रही है।
बलात्कार स्त्री को दंडित करने या काम ज्वार को शांत करने के लिए हो रहे है। संचार क्रांति ने पॉकेट में पोर्न की सुविधा प्रदान की है जो पुरुष की मानसिकता को विकृत करने का काम कर रही है। बलात्कार के कई तथ्य आपस मे गडमड हैं जिनका निराकरण आवश्यक है।एक सच्चा लेखक जिस कंटेंट को उठता है उसके मूल पर अंगुली रखकर वह उसे इंगित करता है। स्त्री के पोशाक संबंधी दलील पर अपनी राय रखते हुए लेखिका इस पहलू की ओर इंगित करतीं हैं कि मेले कुचैले, दबे, ढके, विक्षिप्त, बूढ़ी, शिशु, ग्रामीण, प्रौढ़, पागल, भिखारी, विकलांग स्त्रियों के बलात्कार के पीछे क्या वस्त्र या फैशन अपनी भूमिका निभाता है। पुरुष दृष्टिकोण के इस तर्क से इंदू जी पूर्णतः असहमत दिखाई देती हैं। बलात्कार से संबंधित पुरुषवादी मानसिकता से उपजे विसंगत राग की वे धज्जी उड़ाकर रख देती हैं।
पौराणिक मिथक में भगवान विष्णु द्वारा वृंदा का सतीत्व भ्र्ष्ट करना जालंधर की मृत्यु के लिए आवश्यक था। जबकि कंस की माँ के साथ हुआ बलात्कार एवं रावण द्वारा अपनी पत्नी की बड़ी बहन का किया गया बलात्कार का कारण कामेच्छा की पूर्ति बताई गई है। तीनो घटनाओं पर विचार करें तो यह एक देवता एवं दो दानव द्वारा अंजाम दी गई थीं। इन घटनाओं के मूल में जाने पर पुरुष की स्वार्थपरता एवं वर्चस्व स्पष्ट दिखाई देता है। कहना न होगा कि आदिम युग से स्त्रियों के साथ किया जानेवाला यह कुकृत्य पुरुष वर्चस्वता के कारण ही घटित होता रहा है लेकिन दुर्भाग्य से हर काल और युग मे इसके लिए स्त्री ही लांछित होती आई है। समाज की इस व्यवस्था से लेखिका के मन मे गहरा असंतोष है जो पुस्तक में मुखर रूप से अभिव्यक्त हुआ है।
इस पुस्तक के अंतिम अध्याय में इस जघन्य अपराध को रोकने के लिए जिस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है उसका संघात संस्कार बिंदु पर दिखाई देता है जो वर्तमान व्यवस्था में निरंतर क्षीण पड़ती जा रही है। अतः इस निष्कर्ष के बूते इस कुकृत्य का सुधार अतिशय जटिल प्रतीत होता है। हालांकि इसमें बताए गए रास्ते आसान हैं जिन पर चलकर समाज को इस मनोवृत्ति से छुटकारा दिलाया जा सकता है।लेकिन यह भी विचारणीय है कि समाज मे हर तबका यहाँ तक पहुचने में सक्षम है? अगर नही तो बदलाव के लिए आंदोलन के साथ क्रूरतम दंड विधान जायज है। लेखिका संस्कारों की पक्षधर रही हैं। इनकी लिखित अन्य पुस्तकों को पढ़कर इस बात को समझा जा सकता है। इनकी पक्षधरता के कारण ही इनका निष्कर्ष संस्कार के बिंदु पर संघात खाता प्रतीत होता है।
सम्पूर्ण पुस्तक में एक शोधपरक दृष्टिकोण का प्रयोग किया गया है जो तथ्यों को पूरे नाप -तौल के साथ व्याख्यायित करता है। करीब सात अध्यायों में वर्णित इस पुस्तक में बलात्कार संबंधी हर पहलुओं को उजागर करने का प्रयास करते हुए पूरी गहराई के साथ उसकी छानबीन की गई है जिसमे मनोवैज्ञानिकता का समावेश साफ़ दिखाई देता है। कई मुद्दे को उठकर उस पर संक्षेप में अपनी बातें कहकर लेखिका द्वारा आगे बढ़ जाना समस्या के प्रति न्याय पूर्ण प्रतीत नही होता है इस ओर उन्हें अपना ध्यान जरूर केंद्रित करना चाहिए।
हिंदी जगत में यह पुस्तक समाज एवं स्त्री के अस्मिता सम्बन्धी समस्याओं का विवेक करने में सहायक है तो इस कुकृत्य से जुड़े न्यायिक धाराओं की समझ को सामान्य जनों में विकसित करने में लाभकारी सिद्ध हो सकती है। जो लोग क्रिमनोलॉजी पर शोध कार्य कर रहे हो उनके लिए यह पुस्तक अत्यंत लाभदायक साबित हो सकती है। इसके लेखन द्वारा इन्दु जी ने बलात्कार विषयक विमर्श को एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुचने का कार्य किया है।
बलात्कार संबंधी सच्चाई को परत दर परत दिखाकर, जिनमे पौराणिक मिथक के साथ आधुनिक घटनाओं का विवरण समाहित है, लेखिका ने चेतन मस्तिष्क में आलोड़न पैदा करने का काम किया है। वास्तविक लेखन जिस निष्पक्षता की मांग करता है वह यहां स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया जा सकता है। बलात्कार संबंधी परिस्थितियों पर विचार पुस्तक को अन्वेषित यथार्थ के संचयन के रूप में प्रस्तुत करता है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि यह पुस्तक लेखन की सफलता को सिद्ध करने की सामर्थ्य रखता है।
इन्दु जी ने जिन-जिन मुद्दों को अपने लेखन के केंद्र में रखा है उस पर गहन पड़ताल के बाद अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है। चक्रव्यूह भी इसी गहन पड़ताल का नतीजा है। समकालीन मुद्दे पर निर्भीकता से अपनी बात रखकर पुरुषवर्चस्ववादी दृष्टि, समाज, कानून व्यवस्था, दंड विधान पर बात करते हुए इन्हें इनके मूल स्वरूप से परिचित कराने का कार्य इन्होंने किया है। औरत बस एक वस्तु मात्र नही है। उसे माल, आइटम, चिकनी, पटाखा मात्र समझना उसी जंगली मानसिकता का द्योतक है जो आदिम कही जाती है। वर्तमान में स्त्री में जो बदलाव आए हैं वह लोक, समाज, राष्ट्र सबके लिए कल्याणकारी सिद्ध हो रहे हैं।
स्त्री प्रगति के मार्ग में बलात्कार द्वारा बाधा पहुचने की कोशिश हर स्तर पर की जा रही है। चक्रव्यूह पुरुष रचता है जिससे स्त्री मुक्त न हो सके। इस रचना के पीछे उसका यही मूल उद्देश्य होता है। स्त्री अगर इसे तोड़कर आगे निकलती है तो उसके अस्तित्व की हत्या इस कुकृत्य द्वारा करने का प्रयास किया जाता है। विकसित होते समाज में स्त्रियों पर किए जाने वाले पुरुषों के इस आदिम प्रहार से स्त्री कब मुक्त हो पाएगी लेखिका की यही चिंता यहाँ दृष्टिगत होती है।
स्त्री जब तक समाज मे पूर्णतः सुरक्षित नही हो जाती तब तक हमारा समाज आधुनिक और प्रगतिशील नही कहा जा सकता है। इसके लिए पुरुषवादी सोच में बदलाव आवश्यक है। एक स्वच्छ दृष्टिकोण ही समाज को उक्त मनोरोग से मुक्ति दिला सकता है जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों की बराबर भागीदारी बिना किसी भय के फलदायक सिद्ध हो सकती है। आज समय की मांग स्वस्थ समाज के निर्माण की है तभी व्यक्ति और राष्ट्र की प्रगति संभव है। यह पुस्तक अपने स्टेटमेंट से ऐसे कई पहलुओं से अवगत कराती चलती है। इसे लेखन की कलात्मकता कहा जा सकता है। कहना नही होगा कि 'चक्रव्यूह' द्वारा लेखिका ने पुरुषवादी समाज को एक स्वस्थ दृष्टि देने की कोशिश की है। एक चक्रव्यूह जो पुरुषसत्तात्मक समाज ने स्त्री को जकड़ने के लिए रचा था। शनै शनै ही सही पर स्त्री इसे भेद रही है।
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